परीशाँ हो के मेरी ख़ाक

परीशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए
परीशाँ होके मेरी खाक आखिर दिल न बन जाये
जो मुश्किल अब हे या रब फिर वही मुश्किल न बन जाये
न करदें मुझको मज़बूरे नवा फिरदौस में हूरें
मेरा सोज़े दरूं फिर गर्मीए महेफिल न बन जाये
कभी छोडी हूई मज़िलभी याद आती है राही को
खटक सी है जो सीने में गमें मंज़िल न बन जाये
कहीं इस आलमें बे रंगो बूमें भी तलब मेरी
वही अफसाना दुन्याए महमिल न बन जाये
अरूज़े आदमे खाकी से अनजुम सहमे जातें है
कि ये टूटा हुआ तारा महे कामिल न बन जा
Share:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *